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विजय का नयी बहू का अवतार - निशा की स्पेशल ट्रैनिंग..

 निशा ने विजय को एक चमकदार लाल रंग की ब्रा और पैन्टी थमाते हुए कहा, "ये लो, जाकर नहा लो और इन्हें पहन लो।" उसकी आवाज़ में एक शरारती सी शक्ति थी, "जब तक तुम नहा कर आते हो, मैं बाकी चीजें तैयार कर देती हूँ।" विजय थोड़ा झिझका, पर फिर हँसते हुए बाथरूम में घुस गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि निशा के दिमाग में क्या चल रहा है, पर वो उसके साथ बहने को तैयार था।

जब विजय नहा कर बाहर आया, तो उसकी नज़र बिस्तर पर पड़ी। वहाँ एक खूबसूरत लाल रंग की साड़ी बिछी हुई थी, जो अपने आप में एक कहानी बयां कर रही थी। साड़ी का लाल रंग शाही ठाठ-बाट और नजाकत बयां कर रहा था। बारीक कारीगरी से बने सुनहरे धागों से सजी यह साड़ी किसी रानी के पहनावे से कम नहीं लग रही थी। साड़ी के साथ मैचिंग ब्लाउज, पेटीकोट, और गहने भी सजा कर रखे थे। ब्लाउज पर साड़ी से मिलते हुए सुनहरे धागों का काम था और गहने भी उसी कलाकारी को दर्शा रहे थे। नथ, झुमके, मांग टीका, चूड़ियाँ, बिछिया, पायल - सब कुछ एकदम परफेक्ट तरीके से सजाया गया था।

साड़ी की चमक देखकर विजय का मन तो प्रसन्न हो गया, लेकिन उसका वज़न देखकर वह थोड़ा घबरा गया। उसे ऐसा लगा जैसे निशा ने उसे परेशान करने के लिए जानबूझकर भारी कपड़े ही चुनती है। कल उसने शरारा सूट चुना था जो अपने आप में काफ़ी भारी था और आज यह साड़ी! उसे याद आया कि कैसे उसे शरारा सूट के भारीपन ने कितना परेशान किया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि निशा आखिर चाहती क्या है।

"निशा, ये साड़ी तो बहुत भारी है।" विजय ने कहा, उसकी आवाज़ में घबराहट साफ़ झलक रही थी, "क्या मैं कोई हल्की सी साड़ी नहीं पहन सकता? कुछ ऐसा जो पहनने में आरामदायक हो? मुझे नहीं लगता कि मैं इतनी भारी साड़ी संभाल पाऊंगा।"

निशा हँसते हुए उसके पास आई, "अरे भैया, शादी के दिन दुल्हन हमेशा भारी साड़ी ही पहनती है।" उसने प्यार से समझाते हुए कहा, "और वैसे भी, जब तुम इसे पहन लोगे तो तुम्हें इसकी आदत हो जाएगी।" विजय को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। एक तरफ तो वह निशा की बात मानना चाहता था, लेकिन दूसरी तरफ उसे अपनी परेशानी का भी ध्यान था।

निशा ने पहले विजय के नाजुक कंधों पर ब्लाउज चढ़ाया, धीरे-धीरे उसके हाथों को बाजुओं से गुजारते हुए। ब्लाउज का नाजुक कपड़ा विजय की त्वचा पर किसी अनजानी सिहरन सी पैदा कर रहा था। पीछे, निशा ने ब्लाउज की डोरियों को आपस में बांधा, उन्हें एकदम टाइट खींचते हुए। फिर निशा ने पेटीकोट उठाया, उसका मुलायम कपड़ा विजय की टांगों को छूकर एक अजीब सी सनसनी पैदा कर रहा था। उसने पेटीकोट को विजय की कमर पर बाँधा और उसके नाड़े को कसकर खींचा, यह सुनिश्चित करते हुए कि वह अपनी जगह पर टिका रहे। विजय ने हल्की सी झिझक के साथ कहा, "अरे निशा, इतना कसकर मत बांधो, मुझे सांस लेने में तकलीफ हो रही है।" निशा ने प्यार से जवाब दिया, "अगर मैंने इसे ढीला बांधा तो भारी साड़ी ढीली हो जाएगी और वो ऐसे नहीं चाहती।" विजय ने एक बार फिर विरोध करने की कोशिश की, "निशा, प्लीज थोड़ा ढीला करो, मुझे घुटन हो रही है।" निशा ने एक शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया, "सब्र करो विजय, थोड़ी देर और।"

अब बारी थी साड़ी की। निशा ने बड़े प्यार से विजय को साड़ी पहनाई, हर प्लेट को ध्यान से सेट करते हुए, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्लेट्स एक समान हों और साड़ी की खूबसूरती में चार चांद लग जाएँ। साड़ी को जगह पर टिकाए रखने के लिए उसने बहुत सारी पिनों का इस्तेमाल किया, हर पिन विजय को याद दिला रही थी कि आज वो पूरी तरह से निशा के हाथों की कठपुतली है। विजय को ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी पुतले की तरह है जिसे निशा अपनी मर्ज़ी से सजा रही है, मगर आज उसे इसका कोई विरोध नहीं था।

साड़ी पहनने के बाद अब बारी थी मेकअप की। निशा अपने हाथों में मेकअप का सामान लिए विजय के पास आई। उसने सबसे पहले विजय के चेहरे को अच्छी तरह से साफ किया और मॉइस्चराइजर लगाया ताकि मेकअप उसके चेहरे पर अच्छी तरह से बैठे। इसके बाद, निशा ने विजय के चेहरे पर फाउंडेशन लगाना शुरू किया। उसने हल्के हाथों से फाउंडेशन को पूरे चेहरे पर अच्छी तरह से ब्लेंड किया ताकि चेहरे पर कोई दाग-धब्बे न दिखें। फाउंडेशन के बाद, निशा ने विजय के चेहरे पर कॉम्पैक्ट पाउडर लगाया ताकि मेकअप सेट हो जाए और चेहरा चमकदार दिखे।

अब बारी थी आँखों की। निशा ने विजय की आँखों में आईलाइनर लगाया, जिससे उसकी आँखें बड़ी और सुंदर लग रही थीं। फिर उसने मस्कारा लगाया जिससे उसकी पलकें घनी और लंबी हो गईं। आखिर में, निशा ने विजय के होठों पर लाल रंग की लिपस्टिक लगाई। लाल रंग विजय के चेहरे पर बहुत जंच रहा था। निशा ने नयी दुल्हन के हिसाब से थोड़ा हेवी मेकअप ही किया था।

विजय खुद को आईने में देखता ही रह गया। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह वह खुद है। निशा ने उसे एकदम दुल्हन की तरह तैयार कर दिया था।

"वाह निशा, तुमने तो कमाल कर दिया।" विजय ने निशा की तारीफ करते हुए कहा, "मैं तो खुद को पहचान ही नहीं पा रहा हूँ।"

"अरे भैया, अभी तो असली मज़ा बाकी है।" निशा ने शरारती अंदाज़ में कहा, "अभी तो तुम्हें गहने पहनने हैं।"

निशा विजय को बेड पर बिठाकर उसके गहने निकाल लायी। उसने विजय को सबसे पहले मांग टीका पहनाया, फिर बड़ी गोल नथ, झुमके और हार। ब्राइडल चूड़ा और हेवी पायल तो वो पहले से ही पहना था। विजय के हाथों में मेहंदी पहले से ही लगी हुई थी, जो उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रही थी। आखिर मे निशा ने उसे कमरबंद पहनाया जो कि वजनदार तो था पर खूबसूरत लग रहा था। 


"बस, अब तुम बिल्कुल तैयार हो।" निशा ने विजय को आईने के सामने खड़ा करते हुए कहा, "देखो, एक बार खुद को।"

विजय ने आईने में खुद को देखा। वह एक खूबसूरत दुल्हन की तरह लग रहा था। उसे खुद पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह वही विजय है, जिसे देखकर लड़कियाँ मुँह मोड़ लेती थीं।

"कैसा लग रहा है?" निशा ने पूछा।

"बहुत अच्छा।" विजय ने शर्माते हुए कहा, "लेकिन मुझे थोड़ा अजीब सा लग रहा है।"

"अरे भैया, घबराओ मत।" निशा ने विजय को दिलासा देते हुए कहा, "तुम बहुत अच्छे लग रहे हो।"

"लेकिन निशा..." विजय ने कहा, "मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं यह सब क्यों कर रहा हूँ।"

"अरे भैया, बस यूँ समझ लो कि यह तुम्हारी ज़िंदगी का एक नया अनुभव है।" निशा ने कहा, "कौन जानता है, कल को तुम्हें यह अनुभव काम आ जाए।"

विजय कुछ नहीं बोला। वह जानता था कि निशा सही कह रही है। ज़िंदगी में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।

"अब भाई बस वो चीजें बची हैं जिसके साथ ही एक दुल्हन शादी शुदा लगती है। " निशा ने कहा,

विजय ने बोला कि अब क्या बचा है सब कुछ तो हो गया है। मगर निशा ने कहा कि अभी मंगलसूत्र, सिंदूर और बिछिया जिसके बिना आप शादीशुदा नहीं लगोगे। विजय ने झुंझलाहट मे मुस्कराते हुए कहा कि चलो ये सब भी पूरा कर दो।

निशा ने विजय के गले में मंगलसूत्र पहनाया और मांग में सिंदूर भरा और फिर उसके पैरों में बिछिया पहनायी।

"बस, अब तुम एकदम परफेक्ट हो।" निशा ने कहा, उसकी आँखों में शरारत चमक रही थी।

 निशा ने विजय को. एक बार फिर आईने के सामने खड़ा करते हुए कहा, "देखो, अब कैसा लग रहा है?" विजय ने आईने में खुद को देखा। उसकी आँखों में आंसू आ गए। वो एक खूबसूरत दुल्हन की तरह सजी हुई थी। लाल रंग की खूबसूरत साड़ी ,हाथों में चूड़ियाँ, माथे पर सजी बिंदी और गले में मोतियों का हार, सब कुछ एकदम परफेक्ट था। लेकिन ये खूबसूरती उसे अंदर ही अंदर डरा रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि वो इतना लाचार क्यों है, निशा पर गुस्सा आ रहा था जो उसे इस तरह सजा रही थी और अपनी किस्मत पर भी गुस्सा आ रहा था जिसने उसे ये दिन दिखाया।

"क्यों भाभी जी, कैसे लग रहे हो अपने आपको देखकर?" निशा ने विजय को चिढ़ाते हुए पूछा। उसकी आवाज़ में एक अजीब सा मज़ा था जो विजय के ज़ख्मों पर नमक छिड़क रहा था।

"मैं..." विजय कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसके मुँह से शब्द नहीं निकले। गला रुंध गया था और आँखों के आगे अँधेरा छा गया था। निशा ने विजय के चेहरे को उठाया और कहा, "अरे वाह! नयी बहु की मुहँ दिखाई का एक महकता गिफ्ट तो देना पड़ेगा क्योंकि वो सुन्दर ही इतनी है!"  वो एक सुगंधित गजरा लायी  जिसको उसने विजय के बालों पर लगा कर सेट कर दिया। इसके बाद निशा ने परफ्यूम की आधी बोतल विजय के शरीर के हर हिस्से पर छिड़क कर खाली कर दी। कमरे में एक अजीब सी गंध फैल गयी जो विजय को और भी घुटन दे रही थी।

निशा ने विजय से कहा, "अब बारी है उसको नयी बहु की मजबूरियाँ,  जिम्मेदारियाँ, काम और नयी बहु कैसे रहती है जैसे घूंघट मे रहना, पति का नाम ना लेना और बहुत कुछ सिखाने की! "

लेकिन उससे पहले निशा ने कहा, "आज वो पूरा दिन उसे 'भाभी' कहकर बुलाएगी क्योंकि आज वो उसकी नयी भाभी की तरह ही लग रही है, समझ गए?"विजय मन ही मन झुंझलाया, पर उसने कुछ नहीं कहा। वो जानता था कि बहस करने का कोई फायदा नहीं है। निशा उसे कभी नहीं समझेगी।

"हाँ ठीक है।" विजय ने थके हुए स्वर में कहा। 

निशा मुस्कुराई और विजय को बेड से उतारकर एक कुर्सी पर बिठा दिया। "अब देखो भाभी जी, सबसे पहले तो आपको ये समझना होगा कि एक नयी बहु का घर में क्या स्थान होता है।" निशा ने समझाते हुए कहा, "घर की हर चीज की ज़िम्मेदारी आपकी होती है, खाना बनाना, घर साफ़ करना, कपड़े धोना, प्रेस करना, बर्तन मांजना, घर के बड़ों का ख्याल रखना, बच्चों की देखभाल करना, मेहमानों की आवभगत करना, हर छोटी-बड़ी चीज का ध्यान रखना, सबकी देखभाल करना, और हाँ, सबसे ज़रूरी, अपने पति की सेवा करना।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "पति? कौन पति? यहाँ तो मैं अकेली ही फंसी हुई हूँ। और ऊपर से इतनी सारी ज़िम्मेदारियाँ? ये तो मुझे नौकरानी बनाने की तैयारी हो रही है।"

"और हाँ," निशा ने आगे कहा, "एक नयी बहु को हमेशा घूँघट में रहना चाहिए।" उसने विजय के सर पर लाल रंग का नेट का दुपट्टा डाला और घूंघट को विजय की छाती तक कर दिया और पिन से इस तरह सेट किया कि वो वही फिक्स रहे । "और हाँ, अपने पति के अलावा किसी और पुरुष से आँख मिलाकर बात भी नहीं करनी चाहिए। हाँ, घर की औरतों से बातचीत हो सकती है, लेकिन आदर और सम्मान के साथ। और हाँ, घर के बाहर किसी भी अजनबी पुरुष से बातचीत तो बिलकुल नहीं।" निशा ने ज़ोर देकर कहा। "बाकी सबको घूंघट के अंदर से ही देखना है।"

"लेकिन यहाँ तो कोई पति है ही नहीं।" विजय ने घूँघट के अंदर से धीरे से कहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर निशा ये सब क्यों करवा रही है।

"अरे भाभी जी, अभी तो आपकी ट्रेनिंग चल रही है।" निशा ने हँसते हुए कहा, "जब आपकी असली में शादी होगी, तब तो आपके पति होंगे ही। और तब आपको ये सब बातें याद रखनी होंगी।"

निशा ने विजय की ट्रेनिंग के लिए एक नया प्लान बनाया था जिससे विजय की बची खुची लड़कों वाली फीलिंग्स खत्म हो जाए तो उसने विजय को सोफ़े पर बिठाकर कहा कि वो वहीँ बैठे क्योंकि उसे नयी बहू की ट्रेनिंग के लिए कुछ नयी चीज़ सूझी है। निशा अपने कमरे में गई और वापस आयी तो उसके पास एक काग़ज था जिसमें वो कुछ लिखकर लायी थी। निशा ने कहा कि उसने रात में ये सब सिर्फ उसके लिए ही लिखा है और विजय को नयी बहू बनने के लिए इसे पढ़ना होगा और याद भी रखना होगा। उसने कहा कि ये वादे या कसम या शर्त जो भी हैं नयी बहू को इसका पालन करना होता है। विजय ने पूछा की ये क्या ज़रूरी है तो निशा बोली हाँ बिल्कुल इसके बिना नयी बहू को अपनी जिम्मेदारियों को कैसे समझेगी। विजय ने गुस्से मे हामी भर दी क्योंकि और कुछ वो कर नहीं सकता था । 

लेकिन इस बीच निशा ने उसे बताया कि सबसे पहले जो प्रस्तावना है उसे विजय को दस बार पढ़ना होगा और उसका मुख्य उद्देश्य यह भी याद दिलाना था कि वह अब एक लड़की, दुल्हन और एक बहू है इसलिए उसे इसे लड़कियों की तरह नजाकत से बोलना है। अब विजय ने कागज पढ़ा..

"मैं, विजया, पूरी ईमानदारी और दृढ़ निश्चय के साथ घोषणा करती हूँ कि अब से मैं एक विवाहित स्त्री हूँ। कल ही मेरा विवाह एक ऐसे पुरुष से संपन्न हुआ है जो अब मेरा जीवनसाथी, मेरा पति है और मैं उनकी धर्मपत्नी हूँ। यह नया रिश्ता, यह पवित्र बंधन मेरे लिए अत्यंत गौरव और हर्ष का विषय है। मैं हृदय से यह प्रण लेती हूँ कि मैं अपने पति की हर उचित इच्छा का सम्मान करूंगी और उनके जीवन में खुशियों और आनंद के रंग भरने का हर संभव प्रयास करूंगी।

एक पत्नी होने के साथ-साथ मैं इस पवित्र बंधन की गरिमा को भी समझती हूँ और इस कागज पर उल्लिखित सभी शर्तों का पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पालन करने का वचन देती हूँ। मैं यह भी स्वीकार करती हूँ कि यदि मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में असफल रहती हूँ या इन शर्तों का उल्लंघन करती हूँ, तो मैं इसके परिणामस्वरूप मिलने वाली किसी भी सजा को सहर्ष स्वीकार करूंगी।"

विजय ने जब वो लिखा हुआ पढ़ा तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया। अपमान की आग में जलता उसका शरीर कांप रहा था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि निशा उसके साथ ऐसा कर सकती है। उसे वो लिखा हुआ नौ बार और पढ़ना था, हर बार अपमान की गहराई में डूबते हुए। उसकी आँखों में गुस्सा और बेबसी के सागर उमड़ रहे थे।

उसने निशा को देखा, उसकी आँखें गुस्से से लाल हो चुकी थीं। "निशा, ये क्या बकवास है? तुम ये सब क्यों लिखा है? क्या तुम्हें अंदाजा भी है कि मुझे कैसा लग रहा है इसे पढ़कर?" विजय का गला गुस्से से रुंध गया था।

निशा मुस्कुराई, उसकी मुस्कराहट में एक अजीब सा ताना था। "अरे, इतना गुस्सा मत करो ना यार! थोड़ी बहुत मस्ती तो चलती है ना।"

"मस्ती? तुम इसे मस्ती समझती हो?" विजय की आवाज थरथरा रही थी। "तुम्हें पता है ना कि ये कितना अपमानजनक है? मैं ये सब क्यों करूँ?"

निशा ने अपनी हंसी को रोकते हुए कहा, "अरे, इतना भी सीरियस मत लो यार! बस थोड़ा सा मजाक कर रही थी।"

"मजाक?" विजय का गुस्सा अब सातवें आसमान पर था। "तुम्हें लगता है कि ये मजाक है? तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो?"

"अरे बाबा, रिलैक्स करो! इतना गुस्सा ठीक नहीं," निशा ने शांति से कहा। "और हाँ, पढ़ना तो पड़ेगा ही। भूल गए क्या मेरे पास क्या है? तुम्हारे लहंगे वाले कारनामों के फोटो और वीडियो! अगर नहीं चाहते कि ये दुनिया देखे, तो चुपचाप पढ़ो।"

विजय हक्का-बक्का रह गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे। निशा ने उसे एक ऐसे जाल में फंसा दिया था जहाँ से निकलना मुश्किल था।

"नौ बार और पढ़ो इसे," निशा ने उसे चिढ़ाते हुए कहा। "फिर तो असली मज़ा आएगा।"

विजय मन मसोसकर फिर से वह प्रस्तावना पढ़ने लगा। हर बार जब वह "विजया" शब्द पढ़ता, उसके अंदर एक सिहरन दौड़ जाती। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी मर्दानगी को किसी ने कुचल कर रख दिया हो। दस बार पढ़ने के बाद वह मानसिक रूप से बुरी तरह थक चूका था।

"बस भी करो निशा, ये क्या बचपना है?" विजय ने गुस्से से कहा।

"अरे बचपना! ये तो बस एक झलक है" निशा ने हँसते हुए कहा। "अब आगे पढ़ो, अभी तो बहुत कुछ बाकी है। 

"क्या? और कितना कुछ है इसमें?" विजय ने घबराकर पूछा। उसे डर लग रहा था कि कहीं निशा ने उसे और ज़्यादा अपमानित करने के लिए कोई और योजना न बना ली हो।

निशा ने मुस्कुराते हुए कागज को हिलाया और कहा, "अरे बस, थोड़ी सी और शर्तें हैं जिन्हें एक अच्छी पत्नी को मानना होता है।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "काश! मैं यहाँ से भाग सकता।"

विजय ने आगे पढ़ना शुरू किया, "

"नियम नंबर एक: मैं हमेशा अपने पति की आज्ञा का पालन करूंगी और कभी भी उससे ऊँची आवाज़ में बात नहीं करूंगी ।" निशा ने ठंडी आवाज़ में कहा, उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी।

विजय ने गुस्से से मेज पर मुक्का मारा, "ये तो बिलकुल गलत है! क्या तुम मुझे बेवकूफ समझती हो? मैं किसी की भी नौकरानी नहीं बनूँगा। और हाँ, ऊँची आवाज़ में बात करने का क्या मतलब है? क्या मैं तुम्हारे साथ इंसानों की तरह बात भी नहीं कर सकता?"

निशा ने उसे घूरा, उसके होंठों पर एक खतरनाक मुस्कान फैल गई। "ज़्यादा उछल कूद मत करो दुल्हन जी," उसने कहा, उसकी आवाज़ में धमकी साफ़ झलक रही थी, "अभी तो पूरी लिस्ट बाकी है। और हाँ, अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी, अगर तुमने मुझे जरा भी दुखी करने की कोशिश की, तो तुम्हें पता है कि मैं क्या कर सकती हूँ।" उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक ऐसी धार थी जो विजय के रूह तक उतर गई।

विजय को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। उसे पता था कि निशा के पास उसके लहंगे वाले फोटो और वीडियो हैं और अगर वो उसकी बात नहीं मानेगा तो निशा उन्हें सबको दिखा देगी।

"ठीक है, ठीक है! मैं पढ़ता हूँ।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"नियम नंबर दो: मैं हमेशा अपने पति को खुश रखने की कोशिश करूंगी तन और मन दोनों से और उसकी हर बात मानूंगी।" निशा ने शरारती मुस्कान के साथ कागज पर लिखी शर्त विजय को पढ़कर सुनाई।

"अरे यार, ये तो हद है! क्या मैं गुलाम हूँ?" विजय ने चिढ़कर कहा, उसका चेहरा एकदम लाल हो गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि निशा मजाक कर रही है या सच में ऐसी शर्तें रख रही है।

निशा ने आँखें तरेरते हुए कहा, "गुलाम नहीं, पत्नी हो! और पत्नी का धर्म होता है पति की सेवा करना।" उसकी आवाज़ में  मजाक और गंभीरता का अजीब सा मिश्रण था।

विजय मन ही मन बड़बड़ाया, "सेवा नहीं, सज़ा दे रही है ये तो मुझे!" उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस शरारती लड़की से कैसे निपटा जाए।

उसने आगे पढ़ना जारी रखा, 

"नियम नंबर तीन: मैं हमेशा अपने पति के लिए सुंदर दिखूंगी और कभी भी बिना मेकअप के उसके सामने नहीं आऊंगी ।"

"ये क्या बकवास है? मेकअप करना मेरा कोई शौक नहीं है।" विजय ने तुरंत विरोध किया। 

"अरे वाह! तो अब तुम मेकअप भी नहीं करोगे अपने पति के लिए ?" निशा ने नकली गुस्से से कहा, उसकी आँखों में शरारत चमक रही थी। "तुम्हें पता है न, एक पत्नी को हमेशा अपने पति को आकर्षित करने के लिए तैयार रहना चाहिए? और मेकअप तो बस एक छोटा सा तरीका है अपनी खूबसूरती को निखारने का।" उसने एक शरारती मुस्कान के साथ आगे कहा, "और वैसे भी, मुझे यकीन है कि तुम बिना मेकअप के भी बहुत सुंदर लगोगी, लेकिन थोड़ा सा मेकअप करने से क्या फर्क पड़ता है?"

विजय ने सोचा, "अगर मैं इसे और तर्क करूँगा, तो ये मुझे और कुछ करने को कहेगी।" उसने चुपचाप आगे पढ़ना शुरू कर दिया।

"नियम नंबर चार: मैं कभी भी अपने पति से बहस नहीं करूंगी और हमेशा उसकी बात ध्यान से सुनूंगी।"

"ये तो बिलकुल नामुमकिन है! बहस तो हर रिश्ते का हिस्सा होती है।" विजय ने कहा।

"ओह, तो तुम बहस करना चाहते हो?" निशा ने चुनौती देते हुए कहा। "ठीक है, कर लो! लेकिन याद रखना, अगर तुम हार गए तो..."

विजय जानता था कि निशा क्या कहने वाली है। उसे अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी।

"नहीं-नहीं, मैं बहस नहीं करना चाहता।" विजय ने घबराहट में कहा।

निशा मुस्कुराई। उसे विजय को इस तरह तड़पाते हुए देखकर बहुत मज़ा आ रहा था।

"बहुत अच्छे! अब आगे पढ़ो।"

विजय ने मन मसोसते हुए आगे पढ़ना शुरू कर दिया।

"नियम नंबर पाँच: मैं हमेशा अपने पति के लिए खाना बनाऊंगी और घर की सफाई करूंगी।"

"ये तो अन्याय है! घर का काम सिर्फ औरतों का नहीं होता।" विजय ने विरोध किया।

"ओह, तो अब तुम घर का काम करने से भी मना कर रहे हो?" निशा ने नाटक करते हुए कहा। "लगता है तुम्हें अपनी पत्नी के कर्तव्यों का एहसास ही नहीं है।"

विजय जानता था कि निशा के साथ बहस करना बेकार है।

"ठीक है, ठीक है! मैं खाना बनाऊंगा और सफाई भी करूंगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा, "अच्छा किया! अब तुम एक आज्ञाकारी पत्नी बनने की राह पर हो।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "काश! ये सब एक बुरे सपने की तरह खत्म हो जाए।"

उसने आगे पढ़ना जारी रखा और पाया कि लिस्ट अभी खत्म नहीं हुई थी। उसे एहसास हुआ कि निशा ने उसे पूरी तरह से फंसा लिया है और उसे उसकी हर बात माननी पड़ेगी।

"नियम नंबर छह : क्योंकि एक सदाचारी और आदर्श पत्नी होने के नाते, मुझे अपने पति का नाम मुख से लेने की इजाज़त नहीं होती है, इसलिए आज से मैं अपने पति का नाम नहीं बोलूंगी। यह एक पवित्र बंधन का प्रतीक है और उनके प्रति मेरे सम्मान को दर्शाता है। और हाँ, इसी नियम के तहत मैं उन्हें उनके नाम से पुकार भी नहीं सकती।"

"अरे ये क्या बकवास है? ये किस किताब में लिखा है? और ये कैसा रिवाज़ है? मैं उनका नाम क्यों नहीं ले सकता? क्या तुम मुझे पत्नी होने का एहसास दिलाना बंद कर दोगी?" विजय ने गुस्से से कहा, उसका चेहरा लाल हो गया था।

"क्योंकि पति का नाम लेना पत्नी के लिए अपशकुन माना जाता है," निशा ने गंभीरता से कहा, उसकी आवाज़ में एक अजीब सी मिठास थी। "और वैसे भी," उसने अपनी बात जारी रखी, "तुम अब उनकी पत्नी हो, उन्हें प्यार से बुलाने के लिए तुम्हारे पास और भी कई नाम होंगे।" निशा की आँखों में शरारत झाँक रही थी, मानो वो जानती हो कि उसकी ये बात विजय को असहज कर देगी।

विजय सोच में पड़ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह निशा की इस बेतुकी बात पर हंसे या गुस्सा करे। एक तरफ तो उसे ये बात बिलकुल पसंद नहीं आई, वहीं दूसरी तरफ निशा का अंदाज़ देखकर उसे हँसी भी आ रही थी।

"जैसे?" विजय ने अंततः पूछा, उसकी आवाज़ में उत्सुकता और झिझक दोनों थी।

निशा के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान फैल गई। "जैसे," उसने अपनी आवाज़ को और भी मीठा करते हुए कहा, "जानू , 'मेरे राजा', 'मेरे बाबू सोना'..." निशा ने जानबूझकर ऐसे नाम चुने थे जो विजय को शर्मिंदा करने के लिए काफी थे।

और हुआ भी ऐसा ही। निशा के मुंह से ये शब्द सुनते ही विजय का चेहरा गुस्से और शर्म से लाल हो गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे या क्या करे। निशा की शरारत काम कर गई थी, और विजय उसके जाल में फँस चुका था।

"चुप करो तुम! मैं ये सब बकवास नहीं करूँगा!" विजय चिल्लाया।

"ओह, तो क्या तुम अपनी पत्नी के कर्तव्यों को निभाने से इनकार कर रहे हो?" निशा ने नाटक करते हुए कहा।

"तुम्हें पता है न, एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति को खुश रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है?"

विजय जानता था कि निशा उसे  और ज्यादा चिढ़ाने वाली है।

"ठीक है, ठीक है! मैं... मैं कोशिश करूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"बहुत अच्छे! मुझे पता था कि तुम समझोगे।" निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा।

"अब जरा नियम नंबर सात पर गौर फरमाइए।" निशा ने नाटकीय अंदाज में कहा।

"नियम नंबर सात: मुझे अपने पति के सामने कभी भी अपने बाल खुले नहीं रखने चाहिए।" विजय ने ऊँची आवाज़ में पढ़ा और फिर निशा की तरफ सवालिया निगाहों से देखा।

"ये कैसा नियम है? मेरे बाल, मेरी मर्ज़ी!" विजय ने विरोध जताया।

"अरे दुल्हन जी, यह तो सुहाग की निशानी है।" निशा ने समझाते हुए कहा। "पति के सामने बाल खुले रखना अपशकुन माना जाता है।"

"पर निशा, ये तो बहुत पुराने ज़माने की बातें हुई।" विजय ने तर्क दिया।

"पुराना हो या नया, नियम तो नियम होता है।" निशा ने सख्ती से कहा। "और वैसे भी, क्या तुम अपने पति के लिए इतना भी नहीं कर सकती?"

विजय जानता था कि निशा से बहस करना बेकार है।

"ठीक है, ठीक है! मैं अपने बाल बाँध लूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"शाबाश! अब तुम कुछ समझने लगी हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा। "चलो, आगे बढ़ते हैं।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "यह औरत मुझे पागल कर देगी।"

उसने आगे पढ़ना शुरू किया,

 "नियम नंबर आठ: मैं हर काम पति जी से पूछकर करूंगी। बिना उनकी आज्ञा के मैं एक कदम भी घर से बाहर नहीं रखूंगी।" 

"अब ये क्या मजाक है? मैं बच्ची नहीं हूँ जो हर बात के लिए परमिशन लूंगी।" विजय ने गुस्से से कहा।

"ओह, तो अब तुम बड़ी हो गई हो? " निशा ने नकली हैरानी जताते हुए कहा। "लेकिन याद रखना दुल्हन जी, एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति की इजाजत लेती है।"

विजय जानता था कि निशा उसे और ज़्यादा अपमानित करने का मौका नहीं छोड़ेगी।

"ठीक है, ठीक है! मैं हर काम के लिए पति जी से पूछूंगी।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

निशा विजयी मुस्कान के साथ बोली, "बहुत खूब! अब तुम एक अच्छी और आज्ञाकारी पत्नी बनने की राह पर हो।"

विजय मन ही मन सोच रहा था, "कब खत्म होगा ये सब? कब मुझे मेरी असली ज़िन्दगी वापस मिलेगी?"

लेकिन उसे एहसास था कि अभी तो ये खेल और आगे बढ़ने वाला है।

"नियम नंबर नौ: मैं हमेशा घूंघट में रहूंगी या सिर ढक कर रहूंगी। क्योंकि एक सच्ची भारतीय नारी होने के नाते, मेरा मानना है कि अपने पति के अलावा किसी और पुरुष को अपने बाल या चेहरा दिखाना उचित नहीं है। यह मेरे पति के प्रति सम्मान और समर्पण का प्रतीक है, और हमारी संस्कृति में एक विवाहित स्त्री की गरिमा और पवित्रता को दर्शाता है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और मैं इसका पालन पूरे दिल से करूंगी।"

"ये तुम क्या कह रही हो? ये तो बहुत ज़्यादा हो गया! मैं अपने ही घर में कैद होकर नहीं रह सकती।" विजय ने गुस्से से कहा, उसकी आवाज़ में झुंझलाहट साफ़ झलक रही थी। "क्या तुम मुझे घर की चार दीवारी में कैद करके रखना चाहती हो?ये तो बिलकुल ही गलत है।"

"अरे दुल्हन जी, यह तो पति के प्रति सम्मान और प्यार की निशानी है।" निशा ने मीठी ज़ुबान में समझाते हुए कहा, उसकी आवाज़ में एक अजीब सी चालाकी थी। "प्राचीन काल से ही भारतीय नारी अपने पति को अपना भगवान मानती है और अपने सौंदर्य को सिर्फ़ उनके लिए ही संजो कर रखती है। यह तो हमारे संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है।"

"और वैसे भी, घूंघट में रहने से तुम्हारी सुंदरता और भी निखर कर आएगी।" निशा ने आगे कहा, उसकी आँखों में एक शरारती चमक थी। "जब तुम घूंघट में से झाँकती हुई अपने पति को देखोगी तो तुम्हारी आँखों की मस्ती और चेहरे की लाली, तुम्हें और भी सुंदर बना देगी।"

"सुंदरता! तुम्हें लगता है मुझे किसी को अपनी सुंदरता दिखानी है?" विजय ने व्यंग्य से कहा, उसका गुस्सा अब भी शांत नहीं हुआ था। "मैं किसी प्रदर्शनी की वस्तु नहीं हूँ जिसे सजा कर रखा जाएगा। मेरी पहचान मेरी सुंदरता से नहीं, मेरे विचारों से, मेरे कामों से है।"

"अरे नहीं दुल्हन जी, ज़रूरी नहीं है कि आप अपनी सुंदरता किसी को दिखाएं, लेकिन एक पति के लिए तो अपनी पत्नी की सुंदरता अनमोल होती है।" निशा ने नाटकीय अंदाज़ में कहा, जैसे वह किसी नाटक का मंचन कर रही हो। "एक पति अपनी पत्नी की सुंदरता को निहार कर, उसकी तारीफ़ कर, अपने प्यार का इज़हार करता है। यह तो पति-पत्नी के बीच के प्रेम को और भी गहरा बनाता है।"

विजय जानता था कि निशा से बहस करना समय की बर्बादी है।

"ठीक है, ठीक है! मैं घूंघट में रहूंगी।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! अब तो तुम सचमुच एक आदर्श पत्नी बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

विजय ने मन ही मन सोचा, "यह औरत मुझे ज़िंदा जला देगी।"

उसने आगे पढ़ना शुरू किया और पाया कि लिस्ट अभी भी खत्म नहीं हुई थी।

" नियम नंबर दस: मैं अपने पति के अलावा किसी और पुरुष से बात नहीं करूंगी। अगर कोई ज़रूरी काम हो तो पहले अपने पति से पूछूंगी।"

"ये तो बिलकुल ही ग़लत है! मैं किसी की गुलाम नहीं हूँ।" विजय गुस्से से बोला।

"अरे दुल्हन जी, यह तो पतिव्रता धर्म है।" निशा ने गंभीरता से कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति के प्रति वफ़ादार रहती है और किसी और पुरुष से ज़रूरी बात भी नहीं करती।"

विजय जानता था कि निशा के साथ बहस करना बेकार है।

"ठीक है, ठीक है! मैं किसी और पुरुष से बात नहीं करूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"बहुत बढ़िया! लगता है अब तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियां समझ आने लगी हैं।" निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा।

विजय मन ही मन सोच रहा था, "काश! यह सब एक बुरे सपने की तरह खत्म हो जाए।"

उसने आगे पढ़ना जारी रखा और पाया कि लिस्ट अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी। उसे एहसास हुआ कि निशा उसे पूरी तरह से झुकाना चाहती है।

"नियम नंबर ग्यारह: मैं अपने पति के दोस्तों और रिश्तेदारों का पूरा सम्मान करूंगी, चाहे वे मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करें।"

"ये क्या बेतुकी बात है? सम्मान तो कमाया जाता है, थोपा नहीं जाता!" विजय ने गुस्से से कहा।

"अरे दुल्हन जी, यह तो परिवार की मर्यादा है।" निशा ने समझाते हुए कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति के परिवार को अपना परिवार मानती है और उनका पूरा सम्मान करती है।"

विजय जानता था कि निशा के तर्कों का कोई अंत नहीं है।

"ठीक है, ठीक है! मैं सबका सम्मान करूंगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! अब तुम सचमुच एक सुशील और संस्कारी पत्नी बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

विजय ने मन ही मन सोचा, "यह औरत मुझे ज़िंदा ही खा जाएगी।"

उसने आगे पढ़ना शुरू किया, लेकिन उसका मन अब उसमें नहीं लग रहा था।

"नियम नंबर बारह: मैं अपने पति की कमाई को अपना ही पैसा समझूंगी और उसका हिसाब रखूंगी।" "ये क्या बकवास है? मेरी कमाई पर मेरा ही हक़ है!" विजय ने विरोध जताया।

"अरे दुल्हन जी, यह तो पति-पत्नी के बीच विश्वास की निशानी है।" निशा ने मीठी छुरी की तरह कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति की कमाई को अपनी कमाई मानती है और उसे सोच समझकर खर्च करती है।"

विजय जानता था कि निशा के तर्क कभी ख़त्म नहीं होंगे।

"ठीक है, ठीक है! मैं आपकी सारी कमाई का हिसाब रखूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"बहुत खूब! लगता है अब तुम एक समझदार और जिम्मेदार पत्नी बनने लगी हो।" निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा।

विजय मन ही मन सोच रहा था, "कब खत्म होगा ये सब? कब मुझे मेरी असली ज़िन्दगी वापस मिलेगी?"

लेकिन उसे एहसास था कि अभी तो ये खेल और आगे बढ़ने वाला है।

"नियम नंबर तेरह: मैं अपने पति से कोई राज नहीं छुपाऊंगी और हमेशा उन्हें सच बताऊंगी।"

"ये तो बुनियादी बात है, इसमें नियम बनाने की क्या जरूरत है?" विजय ने हैरानी से कहा।विजय ने मन ही मन सोचा, "काश! यह सब जल्दी खत्म हो जाए।"

उसने आगे पढ़ना जारी रखा, लेकिन उसका मन अब उसमें बिलकुल भी नहीं लग रहा था। 

"अरे दुल्हन जी, यह तो रिश्ते की नींव है।" निशा ने नाटकीय अंदाज में कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति के साथ ईमानदार रहती है और उनसे कोई भी बात नहीं छुपाती।"

विजय जानता था कि निशा हर बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है।

"ठीक है, ठीक है! मैं कुछ नहीं छुपाऊंगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! अब तो लगता है कि तुम सचमुच एक अच्छी और सच्ची पत्नी बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

"नियम नंबर चौदह: मैं हमेशा अपने पति की इच्छाओं को अपनी इच्छाओं से ऊपर रखूंगी।" 

"ये तो गुलामी हुई न! मेरी अपनी कोई चाहत नहीं?" विजय ने विरोध जताया।

"अरे दुल्हन जी, यह तो त्याग और समर्पण की निशानी है।" निशा ने मीठी ज़ुबान में समझाते हुए कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी से ऊपर रखती है।"

विजय जानता था कि निशा के तर्कों का कोई अंत नहीं है।

"ठीक है, ठीक है! मैं आपकी हर इच्छा पूरी करूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

उसने आगे पढ़ना जारी रखा, लेकिन उसे डर था कि कहीं यह लिस्ट कभी ख़त्म न हो। हर नया नियम उसे और भी ज़्यादा निराश कर रहा था।

"वाह! लगता है अब तुम एक सच्ची भारतीय पत्नी बनने की ओर अग्रसर हो। 

" निशा ने प्रसन्नता से कहा। "चलो, आगे बढ़ते हैं।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "यह औरत वाकई मुझे पागल कर देगी।"

उसने आगे पढ़ना शुरू किया, और पाया कि लिस्ट अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी।

"नियम नंबर पंद्रह: मैं अपने पति के लिए व्रत रखूंगी और उनकी लंबी उम्र की प्रार्थना करूंगी।"

"अब ये क्या नया ड्रामा है?" विजय ने कहा। 

"अरे दुल्हन जी, यह तो पति के प्रति प्रेम और समर्पण का प्रतीक है।" निशा ने नाटकीय अंदाज में कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती है और उनकी सलामती की दुआ करती है।"

विजय जानता था कि निशा के साथ बहस करना समय की बर्बादी है।

"ठीक है, ठीक है! मैं पति के लिए व्रत रखूँगी ।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! अब तो तुम सचमुच एक पतिव्रता पत्नी बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

विजय मन ही मन सोच रहा था, "कब खत्म होगा ये सब? कब मुझे मेरी असली ज़िन्दगी वापस मिलेगी?"

उसने आगे पढ़ना जारी रखा, लेकिन उसका मन अब उसमें बिलकुल भी नहीं लग रहा था। उसे एहसास हो रहा था कि निशा ने उसे पूरी तरह से अपने जाल में फंसा लिया है, और यह 'आदर्श पत्नी' वाला खेल अभी बहुत लम्बा चलने वाला है।

"नियम नंबर सोलह: मैं अपने पति के माता-पिता की सेवा करूंगी जैसे वे मेरे अपने हों।"

"यह तो मेरा भी कर्तव्य बनता है, इसमें नियम बनाने की क्या ज़रूरत है?" विजय ने हैरानी से कहा।

"अरे दुल्हन जी, यह तो संस्कार और परंपरा की बात है।" निशा ने गंभीरता से कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने सास-ससुर की सेवा करती है जैसे वे उसके अपने माता-पिता हों।"

विजय जानता था कि निशा हर बात को एक ड्रामा बना देती है।

"ठीक है, ठीक है! मैं उनकी सेवा करूँगा।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! अब तो लगता है कि तुम सचमुच एक आदर्श बहू बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

नियम नंबर सत्रह: मैं हमेशा साड़ी या सलवार कमीज पहनूंगी। यह मेरी पहचान है, मेरी संस्कृति है, और मेरा स्वाभिमान है। जींस, टॉप या कोई और आधुनिक पहनावा नहीं पहनूंगी। मैं अपने पारंपरिक परिधानों की शोभा और गरिमा को बनाए रखूंगी।" 

"ये तुम क्या कह रही हो? ये तो मेरी निजी पसंद है कि मैं क्या पहनती हूँ!" विजय ने गुस्से से कहा।

"अरे दुल्हन जी, यह तो हमारी संस्कृति और परंपरा की बात है।" निशा ने नकली गंभीरता से कहा। "एक आदर्श भारतीय पत्नी हमेशा  सुशील वस्त्र धारण करती है जो हमारी परंपरा का प्रतीक हों।"

विजय जानता था कि निशा के तर्क कभी ख़त्म नहीं होंगे।

"ठीक है, ठीक है! मैं साड़ी या सलवार कमीज पहन लूंगी।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

"वाह! लगता है अब तुम एक सच्ची भारतीय नारी बनने लगी हो।" निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा। विजय ने पूछा कि अभी कितने नियम बचे हैं मुझे बहुत शर्म आ रही है। 

"अरे दुल्हन जी, घबराइए मत, अभी तो बस कुछ ही नियम बाकी हैं।" निशा ने आश्वस्त करते हुए कहा, हालाँकि उसकी आँखों में शरारत साफ़ झलक रही थी।

"बस कुछ ही? कितने?" विजय ने निराशा से पूछा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह 'आदर्श पत्नी' का पाठ कब खत्म होगा।

"चिंता मत करो दुल्हन जी, जल्द ही तुम एक आदर्श पत्नी बन जाओगी," निशा ने कहा और फिर विजय ने उस कागज़ मे से अगला नियम पढ़ा, 

"नियम नंबर अठारह: मैं बिना अपने पति की इजाज़त के कोई भी व्रत नहीं तोडूंगी, चाहे मेरी तबियत ठीक न हो।"

यह सुनकर विजय को गुस्सा आ गया। "यह तो हद है! मेरी तबियत मेरा शरीर, और तुम मुझे बताओगी कि मैं क्या करूँ और क्या नहीं?"

निशा ने विजय की बात अनसुनी करते हुए कहा, "अरे दुल्हन जी, यह तो पति के प्रति समर्पण का प्रतीक है। एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति की आज्ञा का पालन करती है, चाहे कुछ भी हो जाए।"

विजय जानता था कि निशा से बहस करना बेकार है, इसलिए उसने चुप रहना ही बेहतर समझा।

"बहुत बढ़िया! लगता है अब तुम एक सच्ची और आज्ञाकारी पत्नी बनने लगी हो।" निशा ने विजयी मुस्कान के साथ कहा।

"नियम नंबर उन्नीस: मैं हर रात अपने पति के पैर दबाऊंगी, चाहे मैं कितनी भी थकी क्यों न होऊं।"

यह सुनकर विजय हक्का-बक्का रह गया। "ये क्या बकवास है? मैं नौकरानी थोड़े ही हूँ!"

निशा ने विजय की बात को अनसुना करते हुए कहा, "अरे दुल्हन जी, यह तो पति की सेवा और सम्मान का प्रतीक है। एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति के थके हुए पैरों को दबाकर उनकी थकान दूर करती है।"

विजय जानता था कि निशा के तर्क कभी खत्म नहीं होंगे, इसलिए उसने चुप रहना ही बेहतर समझा।

उसने आगे पढ़ना शुरू किया, और पाया कि लिस्ट अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी।

"नियम नंबर बीस: मैं अपने पति से ऊँची आवाज़ में बात नहीं करूंगी ना ही कभी झगड़ा करूंगी , हमेशा शांत और मीठा बोलूंगी।" यह सुनते ही विजय के माथे पर बल पड़ गए, उसके चेहरे पर क्रोध की लालिमा दौड़ गयी और उसकी भौहें आपस में गुस्से से सिकुड़ गयीं। "ये क्या बकवास है? मैं तो इंसान हूँ, कोई प्रोग्रामड रोबोट नहीं! और वैसे भी, कभी-कभी गुस्सा आना स्वाभाविक है, यह तो मानवीय भावनाओं का एक हिस्सा है।" विजय ने अपने गुस्से को ज़ाहिर करते हुए ज़ोर से कहा।

निशा ने विजय की बातों को मानो हवा में उड़ाते हुए कहा, "अरे दुल्हन जी, यह तो एक महिला की मधुरता और सौम्यता का प्रतीक है, एक सभ्य समाज में उसकी एक अच्छी छवि का परिचायक है। एक आदर्श पत्नी वही मानी जाती है जो हमेशा शांत रहती है, धैर्य का परिचय देती है और अपने पति से प्रेम और आदर से बात करती है।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "काश! ये 'कुछ ही नियम' जल्दी खत्म हो जाएँ और मुझे इस पागलपन से मुक्ति मिले।"

"वाह! लगता है अब तुम एक सच्ची सुशील और संस्कारी पत्नी बनने की राह पर हो।" निशा ने प्रसन्नता से कहा।

विजय ने मन ही मन सोचा, "यह औरत वाकई में मुझे गूंगा और बहरा बना देगी।"

"चिंता मत करो दुल्हन जी, बस कुछ ही नियम बाकी हैं, और तुम एक आदर्श पत्नी बन जाओगी।" निशा ने विश्वास दिलाते हुए कहा।

विजय ने हिम्मत जुटाते हुए अगला नियम पढ़ा, "नियम नंबर इक्कीस: मैं कभी भी अपने पति से उनके शौक और पसंद-नापसंद के बारे में सवाल नहीं करूंगी और उनके शौक और पसंद ही मेरे शौक और पसंद होंगे। "

"मतलब मैं अपनी पसंद का खाना भी नहीं मांग सकता?" विजय ने निराशा से पूछा।

"अरे दुल्हन जी, यह तो पति के प्रति सम्मान और विश्वास का प्रतीक है।" निशा ने नाटकीय अंदाज में कहा। "एक आदर्श पत्नी हमेशा अपने पति के फैसलों का सम्मान करती है और उन पर भरोसा करती है।"

"ठीक है, ठीक है! मैं उनके शौक ही अपने शौक समझूंगी।" विजय ने हार मानते हुए कहा।

विजय मन ही मन सोच रहा था, "कब खत्म होगा ये सब? क्या मेरी कोई पहचान नहीं? क्या मुझे अपनी पसंद-नापसंद रखने का भी हक़ नहीं?"

अब लिस्ट खत्म हो चुकी थी और विजय ने थोड़ी राहत की सांस ली मगर निशा ने कहा कि ये सब नियम तो बहुत कम है एक दुल्हन को इससे भी ज्यादा झेलना पड़ता है जैसे समाज़ और रीतियां जो कि हर जगह अलग अलग होते हैं जैसे 

किसी के घर मे दुल्हन को खाना नहीं खाना होता, किसी के घर मे पानी नहीं पीना होता, किसी के घर मे बोलना नहीं होता और किसी के घर मे तो सांस लेना भी मना होता है। ये सब सुनकर विजय के तो होश ही उड़ गए।  निशा ने पन्ना पलटने को कहा और आखिरी बात पढ़ने को बोला उसमे लिखा था कि वो निशा का कितना आभारी है उसमे लिखा था। 

मैं, विजया, इस नियम पुस्तिका को लिखने, मुझे सब कुछ समझाने और एक आदर्श बहू और एक आदर्श पत्नी बनने में मेरी मदद करने के लिए निशा को तहे दिल से धन्यवाद देती हूँ। निशा ने अपनी समझदारी और अनुभव से मुझे उन सभी बातों से अवगत कराया है जो एक खुशहाल और सफल गृहस्थी की नींव होती हैं। उन्होंने मुझे बताया है कि एक बहू और पत्नी होने के नाते मेरी क्या-क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं और मुझे किस तरह अपने परिवार के सदस्यों के साथ प्रेम और सम्मान से पेश आना है।

मुझे यकीन है कि निशा द्वारा बताए गए आदर्श बहू के इन नियमों का पालन करके मैं एक सफल गृहस्थी की नींव रख पाऊंगी। ये नियम मुझे अपने पति के साथ एक मजबूत और प्यार भरा रिश्ता बनाने में मदद करेंगे, साथ ही उनके परिवार के साथ भी एक सामंजस्यपूर्ण और प्रेमपूर्ण रिश्ता बनाने में सहायक होंगे। मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि मैं अपने पति और उनके परिवार की सभी अपेक्षाओं पर खरी उतरूं और एक आदर्श बहू और पत्नी के रूप में अपनी भूमिका को पूरी निष्ठा से निभाऊं।

यह पढ़ते ही विजय के होश ठिकाने आ गए। उसके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान फैल गई।

"तो यह थी बात! यह कोई नियम पुस्तिका नहीं, बल्कि निशा की खुद की इच्छा सूची है!" विजय मन ही मन हँसने लगा।

निशा ने उत्सुकता से पूछा, "तो कैसा लगा दुल्हन जी? क्या अब आपको समझ आया कि एक आदर्श पत्नी कैसे बनते हैं?"

विजय ने बड़ी ही मासूमियत से जवाब दिया, "हाँ, हाँ! अब तो मुझे सब समझ आ गया। आपने तो मेरी आँखें ही खोल दीं।"

निशा विजय की बात सुनकर फूली नहीं समा रही थी। उसे लगा कि आखिरकार उसने विजय को 'आदर्श पत्नी' बनने का रास्ता दिखा ही दिया। 

फिर निशा ने विजय को चलने को कहा। जब विजय चलने लगा तो निशा हँसते हुए विजय को देख रही थी, जो साड़ी पहने अजीबोगरीब तरीके से चलने की कोशिश कर रहा था। उसने उसे दिखाया था कि कैसे छोटे-छोटे कदम उठाते हुए, पल्लू को एक हाथ से संभालते हुए चलना चाहिए, लेकिन विजय के लिए ये सब कुछ बिलकुल नया और अजीब था। साड़ी और गहनों का बोझ उसके लिए असहनीय हो रहा था। साड़ी का पल्लू बार-बार उसके पैरों में आ जाता, जिससे उसे ठीक से चलने में दिक्कत हो रही थी। गहनों की झनकार से उसके कान बज रहे थे, और वो अपने ही शरीर में फंसा हुआ महसूस कर रहा था। हर बार जब वो चलने की कोशिश करता, तो साड़ी का पल्लू उसके पैरों में आ जाता और उसे अपना संतुलन बनाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती। निशा ने उसे समझाया था कि साड़ी पहनकर चलने के लिए धैर्य और अभ्यास की ज़रूरत होती है, लेकिन विजय को लग रहा था कि ये उसके बस की बात नहीं है।

"अरे भाभी जी, ध्यान से!" निशा ने उसे टोका, "ऐसे कैसे चल रही हो? कमर सीधी रखो, और नज़रें नीचे।"

विजय ने सोचा, "काश! मैं ये सब उतार कर भाग सकता।" यह साड़ी, यह गहने, यह बनावटी चाल-ढाल, सब उसे बेचैन कर रहे थे।


आगे निशा ने उसे सिखाया कि कैसे घूँघट करके शर्माते हुए बात करनी है, कैसे ससुराल वालों के सामने नज़रें नीची करके बैठना है, और कैसे हाथों से काम करना है। हर बात पर निशा उसे टोकती रहती और विजय मन ही मन अपनी किस्मत को कोसता रहता। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसने यह नाटक करने का फैसला क्यों किया।

"भाभी जी, ज़रा मुस्कुराओ तो!" निशा ने कहा, "दुल्हनें हमेशा मुस्कुराती रहती हैं, चाहे उनके मन में जो भी चल रहा हो।"

विजय ने ज़ोर से अपने दांत निकाले, जो एक बनावटी मुस्कान की तरह लग रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कान के बजाय एक अजीब सा भाव था, जो दर्शा रहा था कि वह कितना असहज महसूस कर रहा है।

"अरे वाह, मेरी भाभी जी तो कितनी प्यारी हैं!" निशा ने ताना मारते हुए कहा। उसे विजय की यह हालत देखकर हंसी आ रही थी, लेकिन वह खुद को रोक रही थी।

"चलो अब देखते हैं तुम कितनी अच्छी बहू बनती हो।" निशा ने विजय को रसोई में ले जाते हुए कहा, "आज तुम्हें सबके लिए खाना बनाना है।"

विजय ने घबराकर कहा, "लेकिन निशा, मुझे तो खाना बनाना बहुत कम आता तो है। " उसे तो सिर्फ़ चाय-नाश्ता बनाना आता था, वह भी कभी-कभार।

"अरे भाभी जी, घबराओ मत।" निशा ने कहा, "मैं हूँ ना। मैं तुम्हें सब सिखा दूंगी।"

निशा ने विजय को बताया कि उसे क्या-क्या बनाना है। मेन्यू था दाल, सब्जी, रोटी और चावल। विजय ने पहले कभी रसोई में हाथ तक नहीं लगाया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ से शुरुआत करे। चाकू कैसे पकड़े, आटा कैसे गूंथे, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

निशा ने उसे सब्जियां काटना सिखाया, दाल बनाना सिखाया, और आटा गूंधना सिखाया। विजय ने बड़ी ही मेहनत से, निशा के निर्देशों का पालन करते हुए, खाना बनाया। उसे हर काम को करने में बहुत समय लग रहा था, और वह बार-बार गलतियां कर रहा था।

जब खाना बन गया, तो निशा ने उसे परोसने को कहा। विजय ने बड़ी ही सफाई से थाली में खाना परोसा और डाइनिंग टेबल पर ले जाकर रख दिया। उसे डर था कि कहीं खाना परोसते समय उसकी साड़ी गंदी न हो जाए।

"वाह भाभी जी, आपने तो कमाल कर दिया।" निशा ने विजय की तारीफ करते हुए कहा, "खाना तो बहुत ही स्वादिष्ट बना है।"

विजय के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान आ गई। उसे अपनी मेहनत का फल मिल गया था। उसे खुशी थी कि उसने आखिरकार कुछ ऐसा कर दिखाया था, जो उसे पहले असंभव लगता था।

"लेकिन भाभी जी," निशा ने फिर कहा, "खाना खाने का तरीका भी तो सीखना होगा।"

निशा ने विजय को बताया कि एक नयी बहु को हमेशा सबसे बाद में खाना खाना चाहिए और वह भी अपने पति के खाने के बाद। उसे यह भी बताया गया कि खाना खाते समय उसे अपना चेहरा घूँघट से ढके रखना है।

"लेकिन यहाँ तो कोई पति है ही नहीं।" विजय ने कहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन सब बातों का क्या मतलब है जब यहाँ कोई ससुराल वाले ही नहीं हैं।

"अरे भाभी जी, ये तो मैं आपको बस समझा रही हूँ," निशा ने हँसते हुए कहा, "जब आपकी असली में शादी होगी, तब तो आपके पति आपके साथ ही बैठकर खाना खायेंगे।" विजय थोड़ा शरमा गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि निशा अचानक ऐसा क्यों कह रही है। "और हाँ," निशा ने आगे कहा, "खाना खाते समय आपको अपना घूँघट अपनी नाक तक रखना होगा और अपनी आँखें हमेशा नीचे रखनी होंगी। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले के समय में बहुओं को अपने ससुराल में किसी से आँख नहीं मिलाने देते थे, खासकर पुरुषों से।"

विजय को ये सब बहुत अजीब लग रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज के ज़माने में भी ये सब करना ज़रूरी क्यों है। लेकिन फिर भी, उसने निशा की बात मान ली। उसने घूँघट अपनी नाक तक किया और अपनी आँखें नीचे करके खाना खाने लगी।

"शाबाश भाभी जी," निशा ने कहा, "आप बहुत जल्दी सीख रही हैं। आप कितनी जल्दी सब कुछ समझ जाती हैं!"

खाना खाने के बाद, निशा ने विजय को बर्तन धोने को कहा। विजय ने पहले कभी बर्तन नहीं धोए थे, लेकिन उसने निशा की बात मान ली और बर्तन धोने लगी।

"भाभी जी, बर्तन ऐसे नहीं धोते।" निशा ने उसे टोका, "देखो, ऐसे।" निशा ने विजय को बर्तन धोना सिखाया। विजय ने बड़ी ही मेहनत से सारे बर्तन धो डाले।

"वाह भाभी जी, आप तो बहुत ही अच्छी स्टूडेंट हैं।" निशा ने विजय की तारीफ करते हुए कहा, "आपने तो सारे काम बड़ी ही आसानी से सीख लिए।"

विजय के चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी, लेकिन उसके चेहरे पर संतोष भी था। उसने आज बहुत कुछ नया सीखा था।

"अब बस एक आखिरी काम बाकी है भाभी जी।" निशा ने शरारती मुस्कान के साथ कहा, "अब आपको अपने पति के पैर दबाने हैं, ताकि आपके सारे थकान दूर हो जाएं और आप तरोताज़ा महसूस करें।"

विजय ने निशा की बात सुनकर एक नज़र कमरे में घुमाई और व्यंग्य से कहा, "लेकिन यहाँ तो कोई पति है ही नहीं, जिसे यह आराम मिल सके।"

निशा ठहाका लगाते हुए बोली, "अरे भाभी जी, आप भी न! इतनी सी बात के लिए परेशान हो रही हैं। आज के लिए मैं आपकी पति बन जाती हूँ और आप मेरे पैर दबाकर मेरी थकान उतार सकती हैं।"

विजय मन ही मन झुंझलाया, पर उसने अपने चेहरे पर जरा भी भाव नहीं आने दिया। निशा की यह हरकत उसे बिलकुल पसंद नहीं आई, पर वह मजबूर थी। निशा सोफे पर आराम से पैर फैलाकर बैठ गयी और अपने फ़ोन में व्यस्त हो गयी। विजय झुंझलाहट भरी नजरों से निशा को देखता हुआ उसके पैरों के पास बैठ गया। उसने धीरे-धीरे उसके पैरों को अपने हाथों में लिया और दबाने लगा।

"और ज़ोर से दबाओ भाभी जी," निशा ने आँखें बंद करके हुक्म दिया, "ऐसे क्या किसी मरी हुई चींटी को सहला रहे हो। ज़रा जोर लगाओ, ताकि आराम मिले।"

विजय ने मन ही मन सोचा, "काश! मैं सचमुच चींटी होती, कम से कम इस मुसीबत से तो बच जाती और मुझे यह सब न करना पड़ता।"

इसके बाद पैर दबवाते हुए निशा को एक और विचार आया और उसने विजय को देखकर एक शरारती मुस्कान दी। विजय समझ गया कि कुछ टेढ़ा मेढ़ा होने वाला है। निशा अक्सर शरारतें करती रहती थी और विजय को उसका यह अंदाज़ बहुत पसंद था। उसने सोचा कि पता नहीं इस बार यह क्या नया करने वाली है।  निशा ने विजय को कल का काम समझाया कि तीन दिन पूरे हो गए तो चौथे यानी कल का पूरा दिन उसे एक बार फिर आदर्श बहू बनना है।  विजय को यह सुनकर थोड़ा अजीब ज़रूर लगा पर निशा ने कहा कि उसका प्लान कल के लिए कुछ और था पर उसे भी नहीं पता था कि नयी भाभी जी का विजय का ये अवतार उसे इतना पसंद आएगा। 

निशा ने आगे बताया, "तो कल भी सुबह से घर के सारे काम करने हैं, वो भी पूरे तौर तरीके के साथ, आदर्श पत्नी की तरह।" विजय मन ही मन घबराया । उसे समझ आ गया था कि निशा उसे फिर से इसी रूप मे और परेशान करना चाहती है, लेकिन इस बार एक अलग अंदाज़ में। फिर निशा ने बताया कि असली ट्विस्ट तो यह है कि कल के लिए निशा उसके पति का रोल अदा करेगी और उसे गाइड भी करेगी । यह सुनकर विजय की आँखें खुली की खुली रह गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर निशा के दिमाग में चल क्या रहा है।

फिर निशा ने हँसते हुए कहा, "तो अब आज की भाभी जी कल उसकी बीबी जी बन जाएंगी, इसलिए कल सुबह का अलार्म लगा लो और घर की साफ़ सफाई मतलब झाड़ू पोछा करके चाय बनाकर मुझे एक बीबी की तरह प्यार से जगाना।" निशा ने आगे कहा, "और हाँ,कल सुबह चाय पीने के बाद मैं ये ज़रूर चेक करूंगी कि तुमने कैसी सफाई की है और अगर कल काम बढ़िया ना हुआ तो सज़ा भी मिलेगी और बाकी चीजें कल बता दी जाएंगी।" इतना कहकर निशा सोने चली गई। विजय समझ तो गया था कि कुछ टेढ़ा मेढ़ा होने वाला है पर उसने इतना नहीं सोचा था कि निशा इतनी दूर तक जाएगी। विजय थोड़ा परेशान होकर सोचने लगा कि आखिर निशा ये सब क्यों कर रही है, उसे क्या चाहिए? खैर, कल क्या होगा ये तो कल ही पता चलेगा। इतना सोचकर वो भी सोने के लिए चला गया। निशा ने उसकी साड़ी तो उतारी ही नहीं थी और विजय इतना थक चुका था कि उसने बिना कपड़े बदले, ऐसे ही अलार्म लगा कर सोने चला गया।

सोते समय उसके मन में कल के लिए अजीब सी घबराहट और उत्तेजना दोनों थी। एक तरफ उसे निशा के साथ ये नाटक करने मे सजा लग रही थी तो दूसरी तरफ ये सब उसे बहुत अजीब भी लग रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या सोचे, क्या करे। 

लेकिन उसे ये सब करना तो पड़ेगा ही क्योंकि निशा के पास पहले तो केवल उसकी लहंगे में ही फोटो थी, लेकिन अब सलवार कमीज़ और लाल साड़ी में ये नयी बहू वाली फोटो थी और इन तस्वीरों को देखकर वह बेचैन हो उठता था। निशा जानती थी कि उसकी ये तस्वीरें ही उसका सबसे बड़ा हथियार थीं जिससे वो उसे अपने वश में कर सकती हैं। और हुआ भी यही, वो वाकई में निशा का गुलाम बन गया था।








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