निशा मन में विजय को और तंग करने के नये-नये तरीके सोच रही थी। सुबह हुई तो निशा ने विजय को जगाया और कहा, "उठो मेरी रानी साहिबा, देर हो गयी है।" विजय की आँखें खुलते ही उसे रात वाली बात याद आ गयी। उसे बेसब्री थी यह जानने की कि आज निशा ने उसके लिए कौन से कपड़े चुने हैं। "जानू, आज मुझे क्या पहनना होगा?" विजय ने उठते हुए पूछा। निशा ने हँसते हुए कहा, "अरे बिल्कुल भी घबराओ मत, आज तुम्हें मेरी छोटी बहन का रोल प्ले करना है। सोचो, कितना मज़ेदार होगा! आज के लिए तुम विजया हो, मेरी प्यारी छोटी बहन, और मैं तुम्हारी बड़ी दीदी। इसलिए आज से तुम मुझे दीदी या जीजी कहकर बुलाओगे और मैं तुम्हें प्यार से विजया कहकर पुकारूँगी। ये एक मजेदार खेल है, है ना?और इस खास रोल के लिए, मैंने तुम्हारे लिए कुछ खास और आरामदायक कपड़े चुने हैं। क्योंकि मेरी छोटी बहन हमेशा कम्फर्टेबल रहती है। इसलिए पहले जाकर आराम से नहा लो और फिर ये ब्रा और पैन्टी पहन लेना। ये तुम्हारे लिए बिल्कुल परफेक्ट साइज़ की हैं और बहुत ही सॉफ्ट मटेरियल की बनी हैं, जिससे तुम्हें बिल्कुल भी परेशानी नहीं होगी।...
विजय मन ही मन बहुत पछता रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसने ऐसा क्या कर दिया जो निशा उसे इतना परेशान कर रही है। निशा, एक शरारती मुस्कान लिए, विजय के पास पहुँची। उसके हाथों में एक मोटी रस्सी थी, जिसकी गांठें देखकर ही विजय का दिल धक-धक करने लगा था। निशा ने विजय को कुर्सी पर बैठाया फिर कुर्सी से बाँधना शुरू कर दिया। पहले उसने उसके हाथ कुर्सी के पीछे कसकर बाँध दिए, रस्सी इतनी कसी हुई थी कि विजय को लगा उसके हाथों का खून जम जाएगा। फिर उसने विजय के पैर बाँध दिए, हर गांठ के साथ विजय की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। विजय को ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी जाल में फँस गया हो, एक अजीब सी घुटन उसके सीने में दस्तक दे रही थी। उसके बाद निशा ने रस्सी को उसकी छाती के चारों ओर कसकर घुमा दिया। रस्सी इतनी कसी हुई थी कि विजय को सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी। अंत में, निशा ने रस्सी को विजय की पीठ के पीछे ले जाकर कुर्सी से बाँध दिया ताकि विजय हिल भी ना सके। पूरी तरह से बंधे हुए विजय की नजरें अब निशा पर टिकी थीं। उसकी आँखों में डर और बेबसी साफ झलक रही थी, उसका चेहरा पसीने से तर था, और उसकी साँसें तेज़ हो ...